Monday, 14 September 2015

सुमिरन कर ले मेरे मना…

आज, १४ सितम्बर, हिंदी दिवस के अवसर पर एक विशेष प्रस्तुति



चित्रकार: बिंदु पोपली 


संगीत जब उपासना की ओर ले जाए…कल सुबह के कुछ पल ऐसे ही थे…

एक दिव्य अनुभूति थी जब गुरु नानक के भक्ति-भाव से भरे शब्द पंडित जसराज के भावपूर्ण सुरों में और डॉ एल सुब्रमण्यम के मनमोहक वॉयलिन की तारों पर नाच रहे थे। इस प्रेमपूर्ण संगीत-उपासना में साथ दे रही थीं - कविता कृष्णमूर्ती। और इस संगम में डुबकी लगाने का आनंद-अनुभव शायद शब्दों में वर्णननीय नहीं है।

प्रातः-काल की उस बेला में इस प्रकार का अनुभव वास्तव में ही एक उपासना से कम नहीं है।





(मेरे पास यह संपूर्ण भजन एक साथ ही है, परन्तु इंटरनेट पर दो भागों में ही उपलब्ध है - इसका खेद है क्यूंकि इससे ध्यान भंग होने की संभावना रहती है। )

इसे अनुभव करने के बाद यदि आप आगे पढ़ना चाहें तो....

आज हिंदी दिवस के अवसर पर रह रह कर वही गुरु नानक की पंक्त्तियां याद आ रही हैं। शायद कल के उस अनुभव की छाप है। परन्तु अपने हिंदी न जानने वाले पाठकों के लिए मैं जब इन पंक्त्तियों का अंग्रेजी में अनुवाद करने का सोचती हूँ तो ऐसा लगता है मानो अनुवाद करने से इस भजन के आतंरिक सत्य को, सम्पूर्ण स्वरूप को मेरा प्रयास कभी पकड़ ही नहीं पायेगा। ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ भाव ऐसे होते हैं जो केवल किसी एक भाषा में ही व्यक्त किए जा सकते हैं।

गुरु नानक के ये शब्द साधारण नहीं हैं। ये एक सच्चे भक्तिलीन हृदय की अभिव्यक्ति हैं जो संपूर्ण मानव-कल्याण के लिए हैं, परन्तु इसे और किसी भाषा में कह सकना इतना आसान नहीं है। कम-से-कम मेरे लिए तो नहीं। इसलिए नहीं की अंग्रेजी में उपयुक्त शब्द नहीं है इस बात को कहने के लिए। पर शब्दों का सही चयन सही भाव भी उत्पन कर सके - ऐसा सदैव आव्यशक भी तो नहीं।

एक और कारण भी है जो अनुवाद में कठिनाई प्रस्तुत करता है। वह है - सांस्कृतिक प्रसंग जिसमें इन पंक्तियों का गूढ़ भावार्थ समझा जा सकता है । क्या "मंदिर दीप बिना " के सही भाव को अंग्रेजी का वाक्यांश "temple without a lamp" वास्तव में अभिव्यक्त कर सकता है ? मंदिर और मंदिर में दीप जलाने के भाव के सांस्कृतिक प्रसंग एवं आतंरिक अर्थ को समझे बिना मात्र अनुवाद कर देने से हम कई बार एक कोमल और पवित्र भाव को, एक आध्यात्मिक कर्म को केवल एक साधारण भावना अथवा एक बाहरी कार्य बना देते हैं।

जब गुरु नानक मंदिर में दीप जलाने की बात करते हैं तो हमारी भारतीय संस्कृति के अनुसार वे हमें स्मरण करवा रहें हैं कि मंदिर केवल बाहर ही नहीं है, वास्तविक मंदिर तो मन के अंदर है। और वह मन-मंदिर हरि नाम के बिना सूना है। बहरी दीप जलाना तो केवल एक बाहरी कार्य है, उसका वास्तविक उद्देश्य तो मन-मंदिर को ज्योतिर्मय करना है।

इसी प्रकार "देह नैन बिन" के भाव को समझने के लिए यह प्रसंग समझना आवश्यक हो जाता है कि यहाँ पर केवल बाहरी नेत्रों या बाहरी दृष्टि की ही बात नहीं हो रही है। बिना आतंरिक दृष्टि के, बिना सूक्ष्म दृष्टि के यह मानव जन्म सूना है, अधूरा है -- यह गूढ़ सत्य हम तभी सराह सकते हैं जब हम भारतीय सांस्कृतिक प्रसंग में इस पंक्त्ति को आत्मसात करें। इन सब को मैं अनुवाद में कैसे लाऊँ ?

और सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है -- जब एक प्रबुद्ध संत-पीर, एक ऋषि जिसने अपने एवं समस्त ब्रह्माण्ड के आत्म-दर्शन किये हों और इस जगत के सत्य-स्वरूप को पहचाना हो, जब वह हरि-स्मरण की बात करता है तो उस उपदेश की व्याख्या आप एक साधारण वाक्यांश - "Remember the Lord" से कदापि नहीं कर सकते हैं। प्रभु और प्रभु-लीला का स्मरण तो अन्य कई लोग भी करते हैं, पर गुरु नानक शायद हमें उस स्मरण की ओर ले जाना चाहते हैं जो वास्तवतिक रूप में हमें हरि-दर्शन के लिए, एक अंतर-ज्योति से साक्षात्कार के लिए तैयार कर सकता है। इस भाव को अनुवादित कैसे किया जाये ?

इन सब सीमाओं को भली-भांति अपने समक्ष रखते हुए मैं अनुवाद करने का प्रयत्न नहीं कर रही हूँ। इच्छुक पाठक इस लिंक पर एक अनुवादित प्रयास पढ़ सकते हैं। अथवा भाव को बिना शब्दों के ही अनुभव करने के लिए भजन को सुन कर हरी-स्मरण में डूबने का प्रयास कर सकते हैं। जैसा जिसको साजे....


सुमिरन कर ले मेरे मना तेरी बीती जाती उमर हरी नाम बिना रे ||

कूप नीर बिन धेनु क्षीर बिन धरती मेघ बिना |

जैसे तरुवर फल बिन हीना तैसे प्राणी हरी नाम बिना रे ||

देह नैन बिन रैन चन्द्र बिन मंदिर दीप बिना |

जैसे पंडित वेद विहीना तैसे प्राणी हरी नाम बिना रे ||

काम क्रोध मद लोभ निवारो छाड़ दे अब संत जना |

कह नानक तू सुन भगवंता या जग में नहीं कोई अपना ||


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